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उजाले की ओर - 1

उजाले की ओर

जयश्री रॉय

(1)

दोपहर का धूल भरा आकाश इस समय पीला दिख रहा है। सूरज एकदम माथे पर- एक फैलता-सिकुड़ता हुआ बड़ा-सा सफेद धब्बा! हवा अब रह-रह कर आंच देने लगी है! रूना चेहरे पर दुपट्टा खींचते हुये कार का दरवाज़ा थोड़ा और खोल देती है। सामने की झाड़ियों में हल्की चलती हवा से खड़खड़ाहट हो रही है। दूर धूसर हरियाली में कुछ लाल छींटें पड़े हैं। धीमी सुलगती आग-सी! पलाश, सेमल होगा। मौसम भी तो उन्हीं का है... माथे के ऊपर आम की घनी छाया में रह-रह कर कोई घूग्गू बोल रहा है। सन ग्लासेज़ उतारकर उसने कई बार इधर-उधर देखने की कोशिश की थी मगर कुछ नहीं दिखा था। अब भी ऐसी अमराई होती है, कोयल कूकते हैं, कुओं पर रहट चलते हैं... रूना को आसपास का पूरा परिदृश्य अवास्तविक-सा जान पड़ा था। अब तक तो ये सब उसके किस्से-कहानियों में हुआ करते थे। उस जैसे शहर के लोगों के यथार्थ में तो होते हैं बस सीमेंट के जंगल, बिजली के लट्टुओं में जगमगाते चाँद-सितारे और एसी से चलती पवन पुरवाई... धरती के इतने बड़े-बड़े धानी टुकड़े, क्षितिज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जुड़े फूलों के खेत और पारे-से चमकीले कनाल का पानी... उसे कुछ भी सच नहीं लग रहा। सामने हाई वे पर लगातार तेज़ गति से ट्रकें गुज़र रही हैं। ट्रकों के गुजरने के साथ चारों तरफ धूल के बवंडर और ट्रकों में बजते फिल्मी गीतों का शोर मचा हुआ है. इसी शोर-सराबे के बीच तीन-चार लोग दायीं तरफ के नीम के नीचे खटिया डाले बेखबर सो रहे हैं। खटिया के नीचे हाँफते हुये आवारा कुत्ते...

रोबर्ट्सगंज से कोई आठ-दस किलोमीटर निकलने के बाद वे दोपहर के खाने के लिए किसी रोड साइड ढाबे पर रुके थे। सुबीर के लाख कहने पर भी वह कुछ खा नहीं पाई थी। बनारस से आते हुये रास्ते में लगातार उल्टी होती रही थी। अभी भी बदन घुला रहा था। बड़े-बड़े चूल्हों के पीछे पसीने से नहाये हुये बावर्ची के चेहरे, गंदे-चीकट कपड़ों में मस्ती से गुनगुनाते टेबल पोंछते खाने का ऑर्डर लेते कमउम्र नौकर और हवा में पकते-भुनते खाने की गन्ध... टेबल और हर तरफ भिनकती हुई मक्खियों को देख उसका जी और ज़ोर से मिचलाने लगा था। मिट्टी के गंदे कुल्हड़ मे दी गई चाय भी वह पी नहीं पाई थी। सुबीर ने मज़ाक किया था- ‘हिन्दुस्तानी हो कर इतना गंदगी का ख्याल करोगी तो यहाँ रहोगी कैसे!’ ‘मैं भी यही सोच रही हूँ...’ सुबीर की बात पर ना जाने क्यों रूना मुस्करा नहीं पाई थी। सुन कर सुबीर ने उसे ठंडी आँखों से एक पल घूर कर देखा था। माहौल यकायक गंभीर हो उठा था। इसके बाद वह अधिक देर तक वहाँ बैठ नहीं पाई थी। उठ कर एक पेड़ के नीचे खड़ी कार में आ बैठी थी। सुबीर उस समय खाना खा रहा था।

वे दिल्ली से पहले मुंबई गए थे। वहाँ सुबीर की बड़ी बहन रहती हैं। उनकी छोटी बेटी का पहला जन्मदिन था। उन्हें जाना पड़ा। हालांकि रूना की तबीयत बहुत खराब हो रही थी। पिछले ही महीने उसका गर्भपात हुआ था। हफ्ता भर अस्पताल में रह कर निकली थी। पिछले सात वर्षों में सुबीर ने चौथी बार नौकरी बदली थी। पहले सुदूर दक्षिण में अपनी बोली-भाषा से दूर, फिर विदर्भ के सबसे पिछड़े इलाके में जहां पाँच वर्षों से बारिश नहीं हुई के बाद दो साल पहले जब सुबीर ने एम टी एन एल ज्वाइन किया था वह बहुत खुश हुई थी- ‘अब दिल्ली या मुंबई!’ लेकिन एक बार फिर उसने नौकरी बदल कर कर एन टी पी सी जाने का फैसला कर लिया था। रूना तो बिलकुल तैयार नहीं थी दिल्ली छोड़ने को, पर कैरियर, ग्रोथ, कंपनी प्रोफाइल जैसे तर्कों के आगे उसकी एक न चली थी। सुबीर को इसी महीने ज्वाइन करना था तो उन्हें आना पड़ा। आते हुये माँ बहुत रोई थी- ‘तेरी ऐसी हालत है जाने किस वनवास पर जा रही है... पिताजी ने ही फिर माँ को समझाया था- ‘जाने दो अब वही उसका घर है।‘ औरतों के घर, पते कितनी आसानी से बदल जाते हैं! आज कुछ, कल कुछ और... काश! इतनी आसानी से वह बदल सकती! जिस्म पर जिल्द चढ़ता-उतरता रहता है, नामों के टैग लगते हैं मगर भीतर सब कुछ जस का तस धरा रह जाता है... मौसम को भी बदलने में कुछ समय लगता है फिर यह तो संवेदनाओं से जुड़ी चीज़ें हैं- सालों का सीखा-अपनाया, भीतर बूंद-बूंद जोड़ा हुआ... ठीक जैसे रेत पर जर्रा-जर्रा जोड़ कर घरौंदे बनाना और फिर उसके टूटने पर एक नई ज़मीन, एक नए आसमान की तलाश में खानाबदोशों की तरह हाथ झाड़ कर चल पड़ना... मगर हर छूटने के साथ अपना भी एक हिस्सा छूटता है, कम होता है। अब रूना को समझ आता है। शादी के साथ ही आकाश में ऊंचा उड़ते-उड़ते डोर कटी पतंग की तरह वह जैसे अचानक ज़मीन पर आ गिरी थी। सब कुछ बंध गया था। सपने भी। यह सबसे बड़ी त्रासदी थी। कम-से-कम उसके लिए। सुबीर को ये बातें वह समझा नहीं पाती। सुबीर उसकी उदासी को उसकी उदासीनता समझता है, दुखी होता है। छूत की बीमारी जैसी होती है यह उदासी! तितली के परों की तरह छूते ही रंग देती है उंगली के पोर!

बनारस से निकलते-निकलते काफी देर हो गई थी। प्लेन एक घंटा लेट था। बारह की जगह एक बजे पहुंचा। लगेज ले कर बाहर आते-आते डेढ़ बज गए थे और शहर से निकलते-निकलते लगभग ढाई। बनारस से काफी दूर निकल आने के बाद सुबीर ने हकलाते हुये उसे बताया था, एनटीपीसी विंध्याचल सुन कर वह झट यहाँ आने के लिए तैयार हो गया था, मगर अब उसे समझ आ रहा है यह विंध्याचल वह विंध्याचल नहीं जो उसने समझा था, बनारस के पास--। सुन कर रूना को पहले तो तेज़ गुस्सा आया था मगर फिर सुबीर का बुद्धू-सा रूआँसा चेहरा देख हंसी आ गई थी। उसे इस तरह अचानक हँसते देख सुबीर का चेहरा और उतर गया था। तब किसी तरह खुद को सम्हालते हुये उसने सुबीर को तसल्ली देने की कोशिश की थी- ‘कोई बात नहीं, होता है...’ सुबीर ने कृतज्ञता से भर कर उसका हाथ दबाया था- ‘अब जैसा भी हूँ तुम्हारा ही हूँ…’

खूबसूरत खेतों के बाद उजड़े-नंगे पहाड़ों का सिलसिला, नुचे पेड़, धूल से बोझिल झाड़ियाँ... आकाश भी भर दोपहर कारखानों की चिमनियों से निकलते धुयें से गहरा स्लेटी हो आया था। सोनभद्र, डाला से गुजरते हुए उसे लगा था, बंद-वातानुकूलित कार के अंदर भी उसका दम घुट जाएगा। सीमेंट की मटमैली धूल से मढ़े छोटे-छोटे गाँव, कस्बे... जाने यहाँ के लोगों के फेफड़ों में कितना सीमेंट जमा होगा! मुंह खोल कर सांस लेते हुये पानी से निकली मछली की तरह दिख रहे हैं! धूल के बगूलों के बीच खेलते नंग-धड़ंग बच्चों को देखते हुये वह सोचती रही थी, जिन पलकों पर गर्द जमी हो, उनमें सपने किस तरह पनपते होंगे… सुबीर ने कहा था, ‘तरक्की की भी एक कीमत होती है।‘ ‘सहमत, मगर इतनी बड़ी!’

मारकुंडी घाटी से गुज़रते हुये रास्ते की हरियाली और चांदी की पन्नी-सी चमकती नदी ने आँखों को कुछ राहत पहुंचाई थी। हवा में सिमटी धुंध की-सी हल्की परत ने पूरे परिदृश्य को स्वप्नवत बना दिया था। लग रहा था, सब कुछ पानी की तरलता में डूबा है- खेत के भूरे-मटमैले टुकड़े, छोटे-छोटे घर, धूप में चमकती नदी की रेखाएँ... सुबीर ने यहाँ-वहाँ कार रुकवा कर कुछ तस्वीरें ली थी। टैक्सी ड्राईवर ने, जो बेहद बातूनी किस्म का था, उनके पहली बार विंध्यनगर आने की बात जान कर इस पूरे इलाके से उनका परिचय करवाने की ज़िम्मेदारी स्वयं अपने ऊपर सहर्ष उठा ली थी। गाड़ी चलाते हुये उसकी कमेंट्री लगातार जारी थी। रिहंद बांध तक पहुँचते-पहुँचते शाम गिरने लगी थी। पहाड़ों के पीछे का सफेद, चमकीला आकाश गहरा पीला होने लगा था। पेड़ों के साँवले साये धीमे पाँव सड़कों पर उतर आए थे। सड़क के पार जंगल के घने झुरमुटों से झांकती– डैम की विशाल काही रंग की दीवार को दिखा-दिखा कर ड्राईवर उसके बारे में बताता रहा था... ‘मैडम! यह इस इलाके का सबसे बड़ा बांध है। कोई एक हजार मीटर लंबा और 100 मीटर ऊंचा। इस इलाके के सभी उद्योगों को पानी यहीं से मिलता है, आपके विंध्यानगर को भी। सिंगरौली, रिहंद, अनपरा, सासन सब इसी बांध के पानी के भरोसे अपना टार्गेट सेट करते है। हम तो तब नहीं थे, पर मेरे पिताजी बताते हैं कि सन साठ में बना था यह बांध और देखते ही देखते कोई एक लाख लोग खेतीहर से विस्थापितों की श्रेणी में आ गए थे। हमारे बाप-दादों की कोई 30 एकड़ जमीन इस बांध और इन बिजली कंपनियों के निर्माण की भेंट चढ़ गई। अबतक तीन बार हमारा विस्थापन हो चुका है- पहले रिहंद बांध... फिर शक्तिनगर पावर प्लांट... और फिर विंध्यनगर, जहां आप जा रही हैं। अपनी माटी से उजड़ने का दुख भला कोई क्या दूर कर सकेगा, लेकिन तब है कि एनटीपीसी जैसी कंपनियों के आने के बाद इस इलाके का चेहरा ही बदल गया है। हम तीन भाई हैं। मैं एनटीपीसी में जीप चलाता हूँ और एक को विंध्यानगर प्लांट में वर्कमैन की नौकरी लग गई है.... रूना को घाटियों में चक्कर आता है, उसने गाड़ी रुकवाकर सड़क किनारे उल्टी की थी लेकिन मन में उसके तीसरे भाई को लेकर सवाल उठ रहे थे... गाड़ी में बैठते ही वह सवाल उसके जुबान तक आ गया था – ‘और आपका तीसरा भाई?’ वह बैढ़न कोर्ट में स्टांप बेचता है और विंध्यनगर टाउनशिप में में लेक पार्क शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में उसे एक दुकान आवंटित हो गई है जहां वह वर्षों से सुबह शाम हरी सब्जियाँ बेचा करता है...’ यह सब बताते हुये उस ड्राइवर की आँखों में एक अजीब तरह की रोशनी चमकी थी’. लाख कोशिशों के बावजूद रूना समझ नहीं पाई थी की उसमें विस्थापन का दर्द तैर रहा था या फिर पुनर्वास के बाद मिले राहत का सुकून... विस्थापन का दर्द रूना के भीतर नए सिरे से फैलने लगा था.... सड़क के दोनों तरफ फैले घने जंगल का अंधेरा जैसे कुछ और गाढ़ा हो कर आसमान से सड़क की तरफ बढ़ने लगा था। रिहंद डैम पीछी छूट कर भी बहीं छूटा था।

रूना को पानी से डर लगता है। हनीमून पर गोवा जा कर सुबीर के आग्रह पर वहाँ का ‘सलाउली’ डैम देखने गई थी। छोटा-सा डैम मगर हरहराते हुये गहरे हरे पानी की ओर देखते हुये उसे चक्कर आ गया था। वे कप के आकार के बांध के बीचोबीच एक छोटी-सी पुलिया पर खड़े थे और उसकी दीवार के पार बंधी अपार जल-राशि किसी भी क्षण टूट पड़ने को आमादा दिख रही थी। डैम की काई चढ़ी दीवारों पर पड़ी दरारों से पानी लगातार रिस रहा था। रूना पर अचानक घबराहट का दौरा-सा पड़ा था। उसे लगा था, बांध किसी भी क्षण टूट पड़ेगा और फिर... वह वहाँ से लगभग दौड़ते हुये बाहर निकली थी। भय की अधिकता के कारण उसका सर दुखने लगा था। सुबीर उसे पीछे से पुकारता रह गया था। की साल पहले का वह डर जैसे रूना के भीतर फिर स जिंदा हो आया था... आगे का सफर उसने आँखें बंद किए चुपचाप कार की सीट से सर टिकाये तय किया था। विंध्यनगर पहुँचते-पहुँचते दिन ढल गया था। एक तीखे मोड पर कार के मुड़ते ही सामने गहरे स्लेटी क्षितिज के दूसरे सिरे पर आकाश एकदम से बासंती दिखने लगा था। सुलगते हुये अग्नि-कुंड-सा! पावर प्लांट में कतार की कतार जलते असंख्य बिजली के पीले बल्ब- जैसे किसी ऊंची मीनार या दीप स्तंभ के आलों पर हज़ारों दीये सजे हो! रूना बेहद थकी थी मगर इस अद्भुत दृश्य ने उसे रोमांच से भर दिया था- इतनी रोशनी! इससे पहले रास्ते में कई गाँव उसे पूरी तरह अंधेरे में डूबे हुये मिले थे जिन्हें देखते हुये उसे ‘दीपक तले अंधेरा’ वाली कहावत याद आई थी। ‘हमारे विंध्यनगर मे रोज़ दीवाली होती है मैडम!’ ड्राईवर ने गर्व से कहा था। रूना साफ-सुथरी कॉलनी की शांत पड़ी सड़कों की ओर देख अनमनी-सी सोचती रही थी- दुनिया के आख़िरी सिरे पर गहन जंगलों के बीच जगमगाता एनटीपीसी विंध्यनगर का यह पावर प्लांट उसके जीवन को कितना रोशन कर पाएगा!... कर पाएगा भी?

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